तेरा गहरा काला ये बदन,
डराते चिल्लाते हो बिजली के संग।
फिर उमड़ते - घुमड़ते ऊपर मंडराना ,
'जनता' जाती है सहम् ।
जैसे कहता हो तेरा ये रौद्र रूप,
होना सब चकनाचूर है।
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है???
नदियाँ उफ़न रहीं हैं ,
सारी सीमायें निगल रहीं हैं।
गाँवों के गाँव उजड़े ,
सबको मसल रहीं हैं।
कुछ बलखते हुए अनाथ,
तो कुछ का उजड़ा सिन्दूर है ,
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?
है त्राहिमाम् किसानों में,
पसरा सन्नाटा खलियानों में ।
कोई चढ़ा सूली,
तो कोई नीलाम हुआ ब्याजों में.... न न... तुम ऐसे तो नहीं थे
हमसे कोई नाराजी तो जरूर है...
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?
शायद नदियों को मैला
तुम देख नहीं सकते,
अम्बर में विष जहरीला
तुम सोख नहीं सकते,
दोस्त 'सम', दोष उल्लंघन का
अपना भी भरपूर है.......
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?