बचपन में पंछी हो जाना चाहता था मैं,
बहुत दूर तक उड़ना था,
हवा में तैरना था मुझे,
इधर से उधर, उधर से इधर बस खेलना था मुझे,
कभी दीदी को, कभी मम्मी को थप्पा बोलता मैं,
सबसे ऊंची पतंग ही मेरी सवारी होती,
स्कूल और मम्मी की पिटाई से छुपना कितना आसान होता,
हा हा!! सुबह सुबह उसकी मुस्कान को एकटक निहार सकता था...
गर्मियों में छत पर जो सोती थी वह।
पंछियों की परेड में शामिल होके खूब करतब दिखाता उसे.
उसे भी पंछी बहुत पसंद थे,
वह भी तो पंछी हो जाना चाहती थी।
शायद तब सब ही पंछी हो जाना चाहते थे।।।
सच कहूँ तो...
मैं....आज भी पंछी हो जाना चाहता हूँ...
पर थोड़ा अलग
ना उड़ने के लिए,
ना तैरने के लिए,
नांही खेलने के लिए,
नजरें चुरा कर उसे देखना भी नहीं चाहता,
"चाहता हूँ तो बस
पंख खोल कर,
आंखें मूंदकर,
ऊपर........ बहुत ऊपर.... इस शोरशराबे से दूर
खुद की धड़कन सुनना"
पता नहीं क्यों....
Saturday, 8 December 2018
सुकून
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