Saturday, 8 December 2018

सुकून


बचपन में पंछी हो जाना चाहता था मैं,
बहुत दूर तक उड़ना था,
हवा में तैरना था मुझे,
इधर से उधर, उधर से इधर बस खेलना था मुझे,
कभी दीदी को, कभी मम्मी को थप्पा बोलता मैं,
सबसे ऊंची पतंग ही मेरी सवारी होती, 
स्कूल और मम्मी की पिटाई से छुपना कितना आसान होता,
हा हा!! सुबह सुबह उसकी मुस्कान को एकटक निहार सकता था...
गर्मियों में छत पर जो सोती थी वह।
पंछियों की परेड में शामिल होके खूब करतब दिखाता उसे.
उसे भी पंछी बहुत पसंद थे,
वह भी तो पंछी हो जाना चाहती थी।
शायद तब सब ही पंछी हो जाना चाहते थे।।।
सच कहूँ तो...
मैं....आज भी पंछी हो जाना चाहता हूँ...
पर थोड़ा अलग
ना उड़ने के लिए,
ना तैरने के लिए,
नांही खेलने के लिए,
नजरें चुरा कर उसे देखना भी नहीं चाहता,
"चाहता हूँ तो बस
पंख खोल कर,
आंखें मूंदकर,
ऊपर........ बहुत ऊपर.... इस शोरशराबे से दूर
खुद की धड़कन सुनना"
पता नहीं क्यों....

Thursday, 16 February 2017

तुम्हारा सपना।।।

लोग कहते हैं मैं रातों में आता हूँ
कभी हँसाता हूँ कभी रुलाता, डराता, जगाता...
कुछेक मुझे गंभीरता से लेते हैं
बाकी भाव ही नहीं देते।
कुछ तो गाली देते हैं
तरक्की का रोड़ा बताते हैं
कई दफा तो मनहूस तक कहा जाता हूँ...

सब सोचते अपने बारे में हैं
क्या मेरा उपयोग बस रातों को आने में है।
मैं तो बस उन्हें जगाना चाहता था
उनकी आवाज उन तक पहुँचाना चाहता था...

तुम भी तो मूकदर्शी हो
तुमने भी कहाँ मुझे पहचाना
मेरा दुःख दर्द कब पहचाना....


है! मेरा भी तो एक सपना है
सपना! तुमसे होकर खुद को साकार होते देखना,
तभी तो आता हूँ,
झटके से तुम्हें जगाता हूँ,
पर तुमने भी मुझे भुला दिया है
अपनी झूठी जिंदगी के तले दबा दिया है
अब तो बस कभी कभी धुंधला सा आता हूँ
खुद को तुममे ही कहीं सिकुड़ा सा पाता हूँ
तुमसे नाराज़ हूँ
पर सच! तमसे ही तो पूरा हूँ मैं
तुम बिन अधूरा हूँ मैं......

तुम्हारा सपना।।।

Tuesday, 31 January 2017

जब तुम हँसती हो!!

जब तुम हँसती हो!!
तब हँसते हैं यह चाँद सितारे,
और चमकती है रातें,
भौंरे गुनगुनाते हैं,
मोर नाँचते हैं, झूमते हैं,

जैसे मिट्टी बस हो जाना चाहती है सौंदी सौंदी,
चाहती हैं नदियाँ बहना
मटकते हुए, लहलहाते हुए,
बारिश खुद रिमझिम हो जाना चाहती है
पहले सावन की तरह,
बादल गरजना चाहतें हैं, बरसना चाहते हैं
बच्चों के अरमानों की तरह,
चिड़ियाँ दूर आसमान में
पँख फैलाकर
आँखें मूंदकर
स्वप्नों में खो जाना चाहतीं हैं,

हवा सरसराती है
तुम्हें गुदगुदाने के लिए,
फूल महकते हैं
बस महकने के लिए नहीं
बल्कि
तुम्हे और..
और रिझाने के लिए,
सच कहूँ तो
जैसे सारी सृष्टि ही तब
ठान लेती हो
इस लम्हे पर रुक जाने के लिए........

Sunday, 29 January 2017

तभी तो रातें आतीं हैं...

हाँ हाँ! उस रात भी तुमने वही देखा था
जो आज,
हर रोज देखते हो,
क्योंकि रातों में हलचल नहीं होती,
चकाचौंध नहीं, भागमभाग भी नहीं....
होती है स्थिरता, तन्हाई...
रातों का अँधेरा कुछ अलग है क्योंकि इसमें तुम खुद से झूठ नहीं बोलते,
जबकि दूसरे अँधेरे में,
इसमें तुम खुद को पहचान ही नहीं पाते,
लोग दिन का उजाला कहते हैं जिसे
वही चकाचौंध, तीव्र, भागमभाग धारी...
रातों में तुम खुद से झूठ नहीं बोलते क्योंकि
रातों के पास तारे हैं
सच्चे तारे,
और तारे बड़े आकर्षक होते हैं
तुम उन्हीं में तो जीना चाहते थे,
ऐसा मैं नहीं तुम्हारा दिल कहता है
सुनो तो सही,
पर दिन के कोलाहल में तुम सुन कहाँ पाते हो...
तभी तो रातें आतीं हैं...
फिर से तारे दिखातीं हैं...
तारे! हैं न बिल्कुल वैसे ही,
जैसे 'सपने'
'तुम्हारे अपने'।।।

Sunday, 19 April 2015

ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

तेरा गहरा काला ये बदन,
                 डराते चिल्लाते हो बिजली के संग।
फिर उमड़ते - घुमड़ते ऊपर मंडराना ,
                         'जनता' जाती है सहम् ।
जैसे कहता हो तेरा ये रौद्र रूप,
                         होना सब चकनाचूर है।
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है???

नदियाँ उफ़न रहीं हैं ,                        
                          सारी सीमायें निगल रहीं हैं।
गाँवों के गाँव उजड़े ,
                         सबको मसल रहीं हैं।
कुछ बलखते हुए अनाथ,
                       तो कुछ का उजड़ा सिन्दूर है ,
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

 
है त्राहिमाम् किसानों में,
                       पसरा सन्नाटा खलियानों में ।
कोई चढ़ा सूली,
                      तो कोई नीलाम हुआ ब्याजों में.... न न... तुम ऐसे तो नहीं थे
                   हमसे कोई नाराजी तो जरूर है...
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

शायद नदियों को मैला
                        तुम देख नहीं सकते,
अम्बर में विष जहरीला
                        तुम सोख नहीं सकते,
दोस्त 'सम', दोष उल्लंघन का
                         अपना भी भरपूर है.......
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

Monday, 23 February 2015

पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

हे ईश्वर अल्लाह तू धरती पे आ...                              पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ...

ये इन्शान तुमको समझ न सका है,                                   जो लाचार पशुओं को काट है,                                     आ तू ही समझा इन्हें खो गया कहाँ...                           पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

महावीर नाम और राम का चरित्र,
श्री कृष्ण गायों के थे परम मित्र,
पर गायों का झुण्ड यहाँ खो गया कहाँ...
पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।

उठो जगो बंधू मिलकर वीङा उठायें,
गौ शाला बनायें गौ मत बचाएं,
ये 'सम' करे आगाज़ शान देश हो महान....
पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

भरोसा

अन्दाजा भी नहीं था, जो अब नजर आ रहे हैं,
इजहार मन्नतों के बस खौफ खा रहे हैं,
उम्मीद हमको न थी, एजाज़ -ए -दगा की,
मेरे अश्कों के दीप भरके , आतिश जल रहे हैं।

आसान न डगर थी अंगार मे चमक थी,
जल जल रहे थे तल , पर आँखों में इक ललक थी।
बाधा बढाने बारूद तैयार कर रहे थे,
बाधक का रूप देखा, तो अपनों ही की झलक थी।

एतवार का ये अंजाम अब भूल न सकेंगे,
फिर भी जो की भलाई, वह याद भी रखेंगे।
कितना भी ऊँचा पर्वत, 'सम' रह में अड़ा लो,
सब लाँघ कर खड़े हम, मंजिल ही पर दिखेंगे।।।