Thursday, 16 February 2017

तुम्हारा सपना।।।

लोग कहते हैं मैं रातों में आता हूँ
कभी हँसाता हूँ कभी रुलाता, डराता, जगाता...
कुछेक मुझे गंभीरता से लेते हैं
बाकी भाव ही नहीं देते।
कुछ तो गाली देते हैं
तरक्की का रोड़ा बताते हैं
कई दफा तो मनहूस तक कहा जाता हूँ...

सब सोचते अपने बारे में हैं
क्या मेरा उपयोग बस रातों को आने में है।
मैं तो बस उन्हें जगाना चाहता था
उनकी आवाज उन तक पहुँचाना चाहता था...

तुम भी तो मूकदर्शी हो
तुमने भी कहाँ मुझे पहचाना
मेरा दुःख दर्द कब पहचाना....


है! मेरा भी तो एक सपना है
सपना! तुमसे होकर खुद को साकार होते देखना,
तभी तो आता हूँ,
झटके से तुम्हें जगाता हूँ,
पर तुमने भी मुझे भुला दिया है
अपनी झूठी जिंदगी के तले दबा दिया है
अब तो बस कभी कभी धुंधला सा आता हूँ
खुद को तुममे ही कहीं सिकुड़ा सा पाता हूँ
तुमसे नाराज़ हूँ
पर सच! तमसे ही तो पूरा हूँ मैं
तुम बिन अधूरा हूँ मैं......

तुम्हारा सपना।।।

Tuesday, 31 January 2017

जब तुम हँसती हो!!

जब तुम हँसती हो!!
तब हँसते हैं यह चाँद सितारे,
और चमकती है रातें,
भौंरे गुनगुनाते हैं,
मोर नाँचते हैं, झूमते हैं,

जैसे मिट्टी बस हो जाना चाहती है सौंदी सौंदी,
चाहती हैं नदियाँ बहना
मटकते हुए, लहलहाते हुए,
बारिश खुद रिमझिम हो जाना चाहती है
पहले सावन की तरह,
बादल गरजना चाहतें हैं, बरसना चाहते हैं
बच्चों के अरमानों की तरह,
चिड़ियाँ दूर आसमान में
पँख फैलाकर
आँखें मूंदकर
स्वप्नों में खो जाना चाहतीं हैं,

हवा सरसराती है
तुम्हें गुदगुदाने के लिए,
फूल महकते हैं
बस महकने के लिए नहीं
बल्कि
तुम्हे और..
और रिझाने के लिए,
सच कहूँ तो
जैसे सारी सृष्टि ही तब
ठान लेती हो
इस लम्हे पर रुक जाने के लिए........

Sunday, 29 January 2017

तभी तो रातें आतीं हैं...

हाँ हाँ! उस रात भी तुमने वही देखा था
जो आज,
हर रोज देखते हो,
क्योंकि रातों में हलचल नहीं होती,
चकाचौंध नहीं, भागमभाग भी नहीं....
होती है स्थिरता, तन्हाई...
रातों का अँधेरा कुछ अलग है क्योंकि इसमें तुम खुद से झूठ नहीं बोलते,
जबकि दूसरे अँधेरे में,
इसमें तुम खुद को पहचान ही नहीं पाते,
लोग दिन का उजाला कहते हैं जिसे
वही चकाचौंध, तीव्र, भागमभाग धारी...
रातों में तुम खुद से झूठ नहीं बोलते क्योंकि
रातों के पास तारे हैं
सच्चे तारे,
और तारे बड़े आकर्षक होते हैं
तुम उन्हीं में तो जीना चाहते थे,
ऐसा मैं नहीं तुम्हारा दिल कहता है
सुनो तो सही,
पर दिन के कोलाहल में तुम सुन कहाँ पाते हो...
तभी तो रातें आतीं हैं...
फिर से तारे दिखातीं हैं...
तारे! हैं न बिल्कुल वैसे ही,
जैसे 'सपने'
'तुम्हारे अपने'।।।