Thursday, 26 December 2013

पर ये कब कौन समझ पता है....

जी भर के रो लेना चाहता हूँ
पर एक आँसू आँख तक आकर
लौट जाता है
पर ये कब कौन समझ पता है.......

बंद कर चुका हूँ
वह अरमानों का कारखाना
जिससे निकलने वाले धुएं से
यह तनहा दिल घबरा जाता है
पर ये कब कौन समझ पता है.......

हम तो अपनी जीत भी नहीं चाह सकते
ये दिल
हार को अपना ले समझाता है
और जीत को कोरी हार बताता है
पर ये कब कौन समझ पता है........

जल रही है सारी पृथ्वी
पर उसमे रोष कहाँ है
दर्द होता है उसे तो बस इसका
कि तपा जा रहा ये सारा जहाँ है
बादल भी उसके इस दुःख में
रोकर बारिश करता जाता है
पर ये कब कौन समझ पता है......

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