Sunday, 19 April 2015

ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

तेरा गहरा काला ये बदन,
                 डराते चिल्लाते हो बिजली के संग।
फिर उमड़ते - घुमड़ते ऊपर मंडराना ,
                         'जनता' जाती है सहम् ।
जैसे कहता हो तेरा ये रौद्र रूप,
                         होना सब चकनाचूर है।
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है???

नदियाँ उफ़न रहीं हैं ,                        
                          सारी सीमायें निगल रहीं हैं।
गाँवों के गाँव उजड़े ,
                         सबको मसल रहीं हैं।
कुछ बलखते हुए अनाथ,
                       तो कुछ का उजड़ा सिन्दूर है ,
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

 
है त्राहिमाम् किसानों में,
                       पसरा सन्नाटा खलियानों में ।
कोई चढ़ा सूली,
                      तो कोई नीलाम हुआ ब्याजों में.... न न... तुम ऐसे तो नहीं थे
                   हमसे कोई नाराजी तो जरूर है...
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

शायद नदियों को मैला
                        तुम देख नहीं सकते,
अम्बर में विष जहरीला
                        तुम सोख नहीं सकते,
दोस्त 'सम', दोष उल्लंघन का
                         अपना भी भरपूर है.......
ऐ बादल! क्या तेरा ही सब क़सूर है?

Monday, 23 February 2015

पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

हे ईश्वर अल्लाह तू धरती पे आ...                              पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ...

ये इन्शान तुमको समझ न सका है,                                   जो लाचार पशुओं को काट है,                                     आ तू ही समझा इन्हें खो गया कहाँ...                           पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

महावीर नाम और राम का चरित्र,
श्री कृष्ण गायों के थे परम मित्र,
पर गायों का झुण्ड यहाँ खो गया कहाँ...
पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।

उठो जगो बंधू मिलकर वीङा उठायें,
गौ शाला बनायें गौ मत बचाएं,
ये 'सम' करे आगाज़ शान देश हो महान....
पशुधन को निर्यात कर रहा जहाँ।।।

भरोसा

अन्दाजा भी नहीं था, जो अब नजर आ रहे हैं,
इजहार मन्नतों के बस खौफ खा रहे हैं,
उम्मीद हमको न थी, एजाज़ -ए -दगा की,
मेरे अश्कों के दीप भरके , आतिश जल रहे हैं।

आसान न डगर थी अंगार मे चमक थी,
जल जल रहे थे तल , पर आँखों में इक ललक थी।
बाधा बढाने बारूद तैयार कर रहे थे,
बाधक का रूप देखा, तो अपनों ही की झलक थी।

एतवार का ये अंजाम अब भूल न सकेंगे,
फिर भी जो की भलाई, वह याद भी रखेंगे।
कितना भी ऊँचा पर्वत, 'सम' रह में अड़ा लो,
सब लाँघ कर खड़े हम, मंजिल ही पर दिखेंगे।।।

तुमको भूल न पाएंगे..

सजल नेत्र है भरा कंठ 
अब बढते कैसे ये जीवन पल ,
अश्कों का क्या 
वह  तो बहते हैं 
पर नहीं सोख पता यह तल|

लोक जगत सब फीका लगता
पास नहीं थे जब तुम कल,
छाँव तुम्हारी पाई जब से 
बाग बाग दिल है हर्षिल|

नीरज-पंकज-कमल 
सरोवर में खिलते ही जायेंगे ,
पर एक तुम्ही हो स्वर्ण कमल 'सम'
तुमको भूल न पाएंगे.....

Sunday, 22 February 2015

कुछ अद्रश्य सा है।

हवा का एक झोंका मुझे कुछ जगा सा गया,
कहाँ खोया हुआ था मैं
इक पल में सब कुछ, भुला सा गया।
जिंदगी की उलझनों में
कुछ इस तरह गुंथा हुआ हूँ,
और इन से ही निपटने,
किन्हीं करारों से भी बंधा हुआ हूँ।
आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाते हुए,
मंझधार में जैसे नैया को खिबाते हुए,
कभी डराते हुए,
कभी रुलाते हुए,
कभी-कभी तो नींद से भी जगाते हुए,
कोई तो आता है,
आते ही आँखों के सामने अँधेरा सा छा जाता है।
नई उलझन का मोती वह
मेरे मस्तिष्क में पुरो देता है
और वही फिर,
जैसे कोई
नींद से मुझे जगा देता है।
हल्का-हल्का सा अहसास तो है,
यहीं कहीं छुपा है जबाब,
ऐसा कुछ भास तो है।
हम क्या, तुम क्या, ये जमाना क्या,
हमारा, तुम्हारा, उसका ठिकाना क्या।
ये सब जैसे एक
अद्भुत द्रश्य सा है,
'सम'
कुछ अद्रश्य सा है।।।।

किरण

अँधेरा आगे घना है,
चाहत बस
एक किरण की,
बस एक छोटी सी किरण,
थाम लूँगा उसे
अपनी बाज़ू में दबा लूँगा।
फिर आँखें बंद,
ये अँधेरा ही
अंधिया जायेगा,
फिर
ओझल
सब ओझल।
कर लूँगा सारे स्तर पार,
होंगे फिर हम मंजिल पर साथ,
बस मैं, मेरे डग और मेरी किरण।।।।