हवा का एक झोंका मुझे कुछ जगा सा गया,
कहाँ खोया हुआ था मैं
इक पल में सब कुछ, भुला सा गया।
जिंदगी की उलझनों में
कुछ इस तरह गुंथा हुआ हूँ,
और इन से ही निपटने,
किन्हीं करारों से भी बंधा हुआ हूँ।
आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाते हुए,
मंझधार में जैसे नैया को खिबाते हुए,
कभी डराते हुए,
कभी रुलाते हुए,
कभी-कभी तो नींद से भी जगाते हुए,
कोई तो आता है,
आते ही आँखों के सामने अँधेरा सा छा जाता है।
नई उलझन का मोती वह
मेरे मस्तिष्क में पुरो देता है
और वही फिर,
जैसे कोई
नींद से मुझे जगा देता है।
हल्का-हल्का सा अहसास तो है,
यहीं कहीं छुपा है जबाब,
ऐसा कुछ भास तो है।
हम क्या, तुम क्या, ये जमाना क्या,
हमारा, तुम्हारा, उसका ठिकाना क्या।
ये सब जैसे एक
अद्भुत द्रश्य सा है,
'सम'
कुछ अद्रश्य सा है।।।।
Sunday, 22 February 2015
कुछ अद्रश्य सा है।
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